शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती : सनातन धर्म के प्रचार के लिए त्याग दिया था नौ साल की उम्र में घर

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भोपाल, 11 सितंबर (हि.स.)। एक नन्हें से बालक में महज दो वर्ष की आयु में वेद, उपनिषद के ज्ञान का प्रकट होना और सात वर्ष की छोटी आयु में संन्यास जीवन में प्रवेश कर जाने की बात निश्चय ही सभी को चकित कर देती है। किंतु यह बात भारत वर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना करने वाले आद्यगुरु शंकराचार्य के विषय में पूर्णत: सत्य है। ठीक इसी तरह इस आदि परम्परा का निर्वहन दो पीठों (ज्योतिर्मठ और द्वारका पीठ) के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने अपने जीवन में किया, सिर्फ नौ वर्ष की नन्हीं उम्र में उन्होंने घर छोड़ सनातन धर्म के लिए ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेते हुए अपने लिए आगे का संन्यास मार्ग प्रशस्त कर लिया था।

वेद कहता है ”तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥” (शुक्लयजुर्वेदसंहिता, अध्याय 36, मंत्र 24)। इस प्रार्थना में निहित भाव कुछ यों हैं- वे देवताओं के हित में स्थापित हैं (देवहितम्); इस जगत् के चक्षु हैं (तत् चक्षुः); शुभ्र, स्वच्छ, निष्पाप हैं (शुक्रम् = शुक्लम्); और वे सामने पूर्व दिशा में उदित होते हैं (पुरस्तात् उच्चरत्)। हम उन सूर्य देवता की प्रार्थना करते हैं। हे सूर्यदेव, हम सौ शरदों (वर्षों) तक देखें, हमारी नेत्रज्योति तीव्र बनी रहे (पश्येम शरदः शतम्); हमारा जीवन सौ वर्षों तक चलता रहे (जीवेम शरदः शतम्); सौ वर्षों तक हम सुन सकें, हमारी कर्णेन्द्रियां स्वस्थ रहें (श्रुणुयाम शरदः शतम्); हम सौ वर्षों तक बोलने में समर्थ रहें, हमारी वागेन्द्रिय स्पष्ट वचन निकाल सके (प्रब्रवाम शरदः शतम्); हम सौ वर्षों तक दीन अवस्था से बचे रहें, दूसरों पर निर्भर न होना पड़े, हमारी सभी इन्द्रियां – कर्मेन्द्रियां तथा ज्ञानेन्द्रियां, दोनों – शिथिल न होने पायें (अदीनाः स्याम शरदः शतम्); और यह सब सौ वर्षों बाद भी होवे, हम सौ वर्ष ही नहीं उसके आगे भी निरोग रहते हुए जीवन धारण कर सकें (भूयः च शरदः शतात्)।

इस मंत्र के अनुरूप शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपने 99 वर्ष दीर्घ जीवन की आयु पूर्ण कर ब्रह्मलीन हुए हैं। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो स्वरूपानंद सरस्वती स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। इस क्रांति के पथ पर बढ़ते हुए उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे। फिर 1940 में उनका दंडी संन्यासी का रूप भी देखने को मिला।

यह उनकी प्रखर तपश्चर्या और सनातन धर्म के प्रति अटूट समर्पण ही था कि 1981 में भारत के संत समाज ने उन्हें शंकराचार्य की उपाधि से पूर्ण किया। साल 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे। उनके बारे में यह भी कहा जा सकता है कि संत समाज के बीच जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भारत के मात्र ऐसे सन्त हैं, जो 12 वर्ष की आयु से लेकर आज 99 वर्ष तक अंग्रेजों से लेकर तमाम सनातन हिन्दू धर्म विरोधी लोगों के विरोध में अपनी बेवाक राय रखते रहे। कई आंदोलन कर चुके हैं, जेल जा चुके हैं। आप भारत के स्वाधीनता आन्दोलन से लेकर साईं को लेकर रखे गए उनके अपने विचारों को इस संदर्भ में देख भी सकते हैं।

स्वामी करपात्री महाराज इन्हीं कारणों से शिष्यों से अधिक अपने प्रिय गुरुभाई स्वरूपानंदजी को मानते रहे, उन पर अटूट विश्वास करते और जहां भी संभव होता, इन्हें ही अध्यक्ष या प्रमुख बनाने का प्रयास करते रहे। द्वारका एवं शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती वेद, उपनिषद, ज्ञान, विज्ञान एवं सनातन परम्परा के ऐसे प्रखर विद्वान थे, जिन्होंने विश्व में सनातन धर्म की प्रखर स्थापना क्यों आवश्यक है, इसके लिए अपने अनेक व्याख्यानों के माध्यम से यह सिद्ध कर दिया था कि विश्व में शांति और प्रेम की स्थापना सनातन धर्म की छत्र छाया में ही संभव है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया का जो भाव है, वह सनातन में ही निहित है।

साथ ही ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि ॥ अर्थात् द्युलोक शान्तिदायक हों, अन्तरिक्ष लोक शान्तिदायक हों, पृथ्वीलोक शान्तिदायक हों। जल, औषधियाँ और वनस्पतियाँ शान्तिदायक हों। सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शान्तिदायक हों। ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शान्ति प्रदान करने वाले हों। उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शान्ति देने वाले हों। सम्पूर्ण चराचर जगत शान्ति पूर्ण हों अर्थात सब जगह शान्ति ही शान्ति हो। ऐसी शान्ति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढ़ती ही रहे। सृष्टि का कण-कण हमें शान्ति प्रदान करने वाला हो। समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो की स्पष्टता रखता हुआ सभी के कल्याण की बात सनातन धर्म करता है। इस पर स्वामी स्वरूपनंद ने गहन चर्चाएं और देश-दुनिया में सफल विमर्श प्रस्तुत किया। निश्चित ही उनका ब्रह्मलीन होना संपूर्ण सनातन हिन्दू समाज की क्षति है। आज उनके ब्रह्मलोक गमन पर उनके श्रीचरणों में शत-शत नमन है।

इनपुट- हिन्दुस्थान समाचार/

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