धनतेरस : संबंध, संवाद और ऊर्जा का उत्सव- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

धन शब्द सुनते ही हमारे मन में सोना, चांदी, संपत्ति या भौतिक ऐश्वर्य का चित्र उभरता है। किंतु यदि हम गहराई में उतरें, तो पाएँगे कि वास्तविक धन इन वस्तुओं तक सीमित नहीं। वस्तुतः धन वह प्रवाह है, जो हमारे जीवन में संबंधों, संवादों, ऊर्जा और उत्साह के रूप में निरंतर गतिमान रहता है। धनतेरस का पर्व इसी गूढ़ अर्थ का संवाद है, सच ही है कि धन केवल तिजोरियों या बैंकों में नहीं होता, वह हमारे जीवन के हर उस क्षण में विद्यमान है, जहाँ सकारात्मक ऊर्जा, प्रेम, कृतज्ञता और परस्पर विश्वास का संचार होता है।

त्रयोदशी तिथि को समुद्र मंथन से धन्वंतरि देव प्रकट हुए थे, जो आयुर्वेद के अधिष्ठाता और आरोग्य के देवता हैं। इसका अर्थ यह है कि धन का प्रथम स्वरूप ‘स्वास्थ्य’ है। स्वस्थ शरीर और संतुलित मन ही जीवन की वह मूल पूँजी हैं, जिनके बिना कोई भी भौतिक साधन अर्थहीन हो जाते हैं। इस दृष्टि से धनतेरस का आध्यात्मिक संदेश यह है कि धन केवल धातु नहीं, बल्कि वह स्वास्थ्य है जो हमें जीवन का रस देता है; वह संतुलन है जो हमें अस्तित्व के साथ जोड़ता है।
यदि हम इसे समाज के स्तर पर देखें, तो धन का दूसरा आयाम “संबंधों की समृद्धि” में दिखाई देता है। मनुष्य जब दूसरों के साथ संवाद करता है, तो वह ऊर्जा का आदान-प्रदान करता है। यह ऊर्जा ही वास्तविक धन है। कोई व्यक्ति जब अपने परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में सकारात्मक संवाद रचता है, सहयोग देता है, किसी का मनोबल बढ़ाता है, तब वह अदृश्य रूप से अपने जीवन की पूँजी बढ़ा रहा होता है। यही कारण है कि धनतेरस के दिन लोग न केवल सोना-चांदी खरीदते हैं, बल्कि एक-दूसरे के घर जाकर शुभकामनाएँ देते हैं, मिठास बाँटते हैं, क्योंकि यह उत्सव केवल भौतिक संपत्ति का नहीं, बल्कि सामाजिक ऊर्जा के प्रवाह का भी प्रतीक है।
दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो धन एक प्रकार का “संवाद” है। यह संवाद कभी भीतर से होता है, तो कभी बाहर से। भीतर का संवाद तब होता है जब हम स्वयं से साक्षात्कार करते हैं; अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं और सीमाओं को पहचानते हैं। जब यह आत्मसंवाद शुद्ध और रचनात्मक होता है, तब हम भीतर से सम्पन्न होते हैं। इसके विपरीत, जब भीतर का संवाद नकारात्मक, भय या असंतोष से भरा हो, तब हमारे जीवन में ऋण बढ़ने लगता है; केवल आर्थिक नहीं, मानसिक और भावनात्मक ऋण भी। इसलिए धन का वास्तविक अर्थ है संतुलन और सामंजस्य का भाव।
धनतेरस का उत्सव इसी संतुलन की पुनःस्थापना का क्षण है। यह दीपावली की तैयारी का प्रथम चरण है; अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा की शुरुआत। इस दिन दीपक जलाना प्रतीक है उस आंतरिक ज्योति का, जो हमें लोभ, भय और असंतोष के अंधकार से बाहर लाती है। जब हम दीप प्रज्ज्वलित करते हैं, तो वस्तुतः हम अपने भीतर की चेतना को जाग्रत कर रहे होते हैं। यही जागरण ही धन की सच्ची उत्पत्ति है।
धनतेरस का सामाजिक पक्ष भी अत्यंत गहरा है। समाज में जब लोग परस्पर सहयोग, विश्वास और करुणा के आधार पर जुड़े रहते हैं, तब सामूहिक धन की सृष्टि होती है। समाज की वास्तविक समृद्धि केवल उसके बाजारों में नहीं, बल्कि उसकी पारस्परिकता में निहित होती है। जब लोग एक-दूसरे के दुख में सहभागी होते हैं, किसी जरूरतमंद की सहायता करते हैं, किसी का बोझ हल्का करते हैं, तब वे उस अदृश्य पूँजी का निर्माण करते हैं जिसे “मानवीय धन” कहा जा सकता है। यही पूँजी किसी समाज को दीर्घकालिक स्थिरता प्रदान करती है।
धनतेरस का एक अन्य पहलू “विश्वास” से जुड़ा है। भारतीय परंपरा में धन का अर्जन केवल परिश्रम का नहीं, बल्कि सदाचार और विश्वास का परिणाम माना गया है। जब धन धर्मसम्मत मार्ग से आता है, तो वह जीवन में स्थायित्व लाता है। इसके विपरीत, जब धन का अर्जन अनैतिक मार्ग से होता है, तब वह न केवल नष्ट होता है बल्कि साथ ही व्यक्ति के भीतर का संतुलन भी नष्ट करता है। इसीलिए कहा गया है, “धनं मूलं इदं जगत्” इस धन का मूल धर्म और नीति में होना चाहिए, तभी यह सृजनशील बनता है।
आध्यात्मिक स्तर पर धन एक “ऊर्जा” है; वह ऊर्जा जो हमारे कर्म, विचार और भावनाओं से उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा जब सकारात्मक होती है, तो व्यक्ति और समाज दोनों का विकास करती है। धनतेरस हमें यही स्मरण कराती है कि हमें अपने जीवन में इस ऊर्जा को शुद्ध रखना है, अपने विचारों में पारदर्शिता, व्यवहार में विनम्रता और कर्म में श्रद्धा रखकर। जब ये तीन तत्व एक साथ आते हैं, तब व्यक्ति धनवान बनता है, चाहे उसके पास भौतिक वस्तुएँ कम ही क्यों न हों।
आज के भौतिकतावादी युग में धनतेरस का यह संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। हम अक्सर धन को केवल मुद्रा या संपत्ति के रूप में मापते हैं, जबकि वास्तविक प्रश्न यह है कि हमारा धन हमें कितनी शांति, कितनी संतुष्टि और कितनी साझा खुशी दे रहा है। यदि हमारे पास बहुत है, पर मन में भय और असुरक्षा है, तो यह धन नहीं, बल्कि बोझ है। लेकिन यदि हमारे पास सीमित है, फिर भी हम प्रसन्न हैं, संतुलित हैं, और दूसरों के जीवन में प्रकाश बाँट पा रहे हैं तो समझ जाएं आपके पास ही सच्चा धन है।
अत: इस आधार पर हमें यही समझना होगा कि धन का प्रवाह तभी सार्थक है जब वह भीतर की संपन्नता से जुड़ा हो। दीपक की लौ की तरह धन भी तब उज्ज्वल होता है जब उसका आधार शुद्ध घी अर्थात् शुद्ध मनोभाव में हो। इस प्रकार देखा जाए तो धनतेरस केवल खरीदारी या सौंदर्य का पर्व होने तक सीमित नहीं है, यह आत्मावलोकन का पर्व भी है। यह याद दिलाता है कि हमें अपनी आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पूँजी को संतुलित रखना है। धनतेरस की प्रेरणा यही है हम धन के बाह्य प्रतीकों से आगे बढ़े किंतु आंतरिक प्रकाश को खोजें बिना रुके नहीं, क्योंकि ये आंतरिक प्रकाश कभी संबंधों में, संवादों में और कर्मों में झिलमिलाता रहता है। अंत में यही कि धन का वास्तविक अर्थ है; वह निरंतर प्रवाह जो जीवन को अर्थ, आनंद और संतुलन देता है। धनतेरस इसी प्रवाह का उत्सव है; हमारे भीतर और हमारे चारों ओर विद्यमान उस अनंत समृद्धि का, जो प्रकाश की भांति सभी को उसकी पात्रतानुसार आलोकित करती है।
