नागपुर: नाग संस्कृति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जन्मभूमि -डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत के सांस्कृतिक इतिहास में कुछ स्थल ऐसे हैं, जो केवल भूगोल नहीं, वे सभ्यता की आत्मा के प्रतीक बन चुके हैं। नागपुर भी ऐसा ही एक स्थल है, जहाँ न केवल भारत की नाग परंपरा का जीवंत भाव रचा-बसा है, बल्कि यहीं 1925 में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना भी हुई। यह कोई संयोग मात्र नहीं है कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना के लिए नागपुर का चयन किया। इसके पीछे भारतीय संस्कृति की गहराइयों में निहित प्रतीकात्मक अर्थ छिपा हुआ है। नाग, भारतीय परंपरा में केवल एक जीव नहीं है, बल्कि वह चिरजीविता, पुनर्जन्म, साहस, संयम और संरक्षण का प्रतीक है; ठीक उसी प्रकार जैसे संघ भारतीय राष्ट्र-जीवन में पुनर्जागरण, अनुशासन और आत्मबल का प्रतीक बनकर उभरा।

नाग की भारतीय सांस्कृतिक व्याख्या

भारतीय संस्कृति में नागों का स्थान अत्यंत पूजनीय है। वैदिक और पुराणिक ग्रंथों में नाग केवल सर्प नहीं, बल्कि ऊर्जा और रक्षा के प्रतीक हैं। भगवान शिव अपने गले में वासुकी नाग को धारण करते हैं, जो मृत्यु और भय पर विजय का संकेत है। वहीं भगवान विष्णु शेषनाग पर विश्राम करते हैं, यह दृश्य भारतीय मनीषा में यह भाव स्थापित करता है कि सृष्टि की स्थिरता और सुरक्षा नाग शक्ति के अधीन है। दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय को नागों का अधिपति माना गया है, और उत्तर भारत में नाग पंचमी नाग शक्ति के प्रति कृतज्ञता का पर्व है।

महाभारत के जनमेजय और आस्तिक की कथा नागों की रक्षा की उस भावना को दर्शाती है जो “प्रकृति के साथ सहअस्तित्व” का आधार है। जब जनमेजय ने नागों के विनाश हेतु सर्पयज्ञ आरंभ किया, तब आस्तिक मुनि ने धर्म और संतुलन की रक्षा के लिए यज्ञ रुकवाया। इस कथा का सार यही है कि भारतीय संस्कृति में विनाश नहीं, संरक्षण ही धर्म है। यही विचारधारा बाद में संघ के जीवन-सिद्धांतों में भी परिलक्षित होती है, “राष्ट्र रक्षा” को सर्वोपरि मानते हुए, आत्मसंयम, अनुशासन और त्याग के मार्ग पर चलना की राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के प्रत्‍येक स्‍वयंसेवक का कर्तव्‍य है।

नागपुर: प्रतीक और पौराणिकता का संगम

‘नागपुर’ शब्द ही स्वयं में सांस्कृतिक संकेत है। “नाग” यानी वह सर्प जो विष धारण कर भी दूसरों की रक्षा करता है, और “पुर” यानी वह नगर जो नाग की ऊर्जा से जीवंत है। भूगोल के दृष्टिकोण से नागपुर मध्य भारत का वह क्षेत्र है, जो उत्तर और दक्षिण, पूरब और पश्चिम के बीच एक प्राकृतिक संगम बनाता है। किंतु इससे भी गहरी बात यह है कि यह शहर नागवंशीय सभ्यता की ऐतिहासिक भूमि है। प्राचीन काल में विदर्भ और आसपास के क्षेत्रों में नाग जातियों का प्रभाव रहा, जिन्होंने भारतीय संस्कृति में अपनी विशिष्ट पहचान छोड़ी।

इसी भूमि पर संघ का जन्म होना इस बात का प्रतीक है कि भारतीय चेतना के पुनर्जागरण का कार्य वहीं से प्रारंभ हुआ, जहाँ नाग संस्कृति ने सहिष्णुता और संरक्षण की भावना को जन्म दिया था। नागपुर का भौगोलिक केंद्र भारत के मानचित्र में जैसे भारत की धड़कन है, वैसे ही आज राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ भारतीय सांस्‍कृतिक एवं धर्मस्‍व समाज की आत्मा का केंद्र बन गया है।

संघ की स्थापना: आत्मबल और संगठन का संकल्प

1925 का भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। राजनीतिक आंदोलनों की गूंज थी, परंतु समाज भीतर से बिखरा हुआ था। जातिगत विभाजन, धार्मिक अस्मिता की उलझनें और मानसिक दासता का बोझ; वस्‍तुत: इन सबके बीच कोई ऐसा संगठन नहीं था जो भारतीय समाज को भीतर से सशक्त बना सके। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जब संघ की स्थापना की, तो उनका उद्देश्य केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सांस्कृतिक स्वराज था। उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्र की आत्मा तभी सशक्त हो सकती है, जब उसका चरित्र सुदृढ़ और समाज संगठित हो।

हेडगेवार स्वयं नागपुर के निवासी थे। उनका दृष्टिकोण स्थानीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय था, परंतु उन्होंने जो बीज बोया, वह इस भूमि की सांस्कृतिक उर्वरता में ही पनप सकता था। उन्होंने इसलिए कहा भी था, “हमारा कार्य किसी सरकार को गिराना या बनाना नहीं है, हमारा कार्य राष्ट्र को खड़ा करना है।” यही नाग संस्कृति का सार भी है; विष पीकर भी दूसरों की रक्षा करना।

नाग-संस्कृति और संघ का प्रतीकात्मक साम्य

नाग केवल पूज्य नहीं, बल्कि भारतीय मानस में एक गूढ़ प्रतीक हैं; वह संयम, रक्षा और पुनर्जन्म का प्रतीक है। सर्प अपनी केंचुली त्यागकर नया रूप ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही जैसे संघ ने समय-समय पर स्वयं को परिस्थिति के अनुरूप ढाला और नए युग के अनुसार कार्य का विस्तार किया।

संघ का आदर्श वाक्य; “तन समर्पित, धन समर्पित, और जीवन समर्पित”, नाग के त्यागभाव से मेल खाता है। नाग अपनी रक्षा-प्रवृत्‍त‍ि में विष को भी सहता है, ठीक वैसे ही संघ ने आलोचना, दुष्प्रचार और प्रतिबंध जैसे अनेक “विष” झेले, परंतु राष्ट्र की भावना से विचलित नहीं हुआ। यह उसकी तपस्या का प्रमाण है।

भारतीय संस्कृति में नाग का संरक्षण और संघ की साधना

भारतीय संस्कृति का मूल भाव “वसुधैव कुटुंबकम्” है, पूरा विश्व एक परिवार है। नाग पूजा इस विचार का प्रकृति-आधारित विस्तार है। जब किसान नाग पंचमी पर धरती को प्रणाम करता है, तो वह यह स्वीकार करता है कि प्रकृति की हर शक्ति, चाहे वह सर्प ही क्यों न हो, जीवन के संतुलन की रक्षक है।

संघ का समाजदर्शन भी इसी परंपरा का अनुयायी है। संघ के स्वयंसेवक समाज को एक जीवित शरीर की तरह मानते हैं, प्रत्येक अंग का अपना धर्म और जिम्मेदारी है। “एकात्म मानववाद” के विचारक पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसी भाव को दार्शनिक रूप दिया, जिसमें व्यक्ति, समाज और प्रकृति का संतुलन ही राष्ट्र के विकास की कुंजी माना गया।

नागपुर से राष्ट्र तक: संघ का विस्तार

संघ का कार्य आरंभ में एक छोटे समूह से हुआ, कुछ बाल स्वयंसेवक, शारीरिक प्रशिक्षण, प्रार्थना और अनुशासन का वातावरण, किंतु धीरे-धीरे यह कार्य एक लोक और जनचेतना में परिवर्तित हो गया। नागपुर की भूमि, जो नागों की तरह संयमित और मौन प्रतीत होती है, भीतर से शक्ति का भंडार है। उसी प्रकार संघ का विस्तार भी धीरे-धीरे, परंतु गहरे स्तर पर हुआ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से लेकर स्वतंत्रता के बाद तक, संघ ने प्रत्यक्ष राजनीति से दूरी रखी परंतु समाज के हर संकट में स्वयंसेवक राष्ट्र के प्रति समर्पित रहते आए हैं। 1947 के विभाजन के दौरान शरणार्थियों की सहायता से लेकर 1962 के चीन युद्ध और 1965 के पाकिस्तान युद्ध तक, संघ के स्वयंसेवकों ने देश की रक्षा और सेवा में अग्रणी भूमिका निभाई। 1975 की आपातकाल अवधि में जब लोकतंत्र पर प्रतिबंध लगा, तब भी संघ ने अपने संगठन-शक्ति के माध्यम से प्रतिरोध और जनजागरण का कार्य किया और आज भी वह यही सामाजिक सेवा, राष्‍ट्र जागरण का कार्य कर रहा है।

नागपुर से निकला संगठन, जिसने राष्ट्र का चरित्र बदला

संघ के संगठनात्मक विकास ने भारतीय समाज में अनुशासन और सेवा की नई परंपरा स्थापित की। शिक्षा, ग्रामीण विकास, वनवासी कल्याण, और सामाजिक एकता के क्षेत्रों में कार्य करते हुए संघ ने “राष्ट्रीय चरित्र निर्माण” को अपना ध्येय बनाया। नागपुर की मिट्टी में जो नाग परंपरा की ऊर्जा थी, उसने संघ के कार्यकर्ताओं में भी वही स्थिरता, लचीलापन और आंतरिक बल प्रदान किया। आज लाखों स्वयंसेवक, शाखाओं में नियमित रूप से उपस्थित होकर वही साधना करते हैं, जो नागपुर में हेडगेवार ने आरंभ की थी।

सांस्कृतिक पुनर्जागरण और नागपुर की भूमिका

यदि हम भारत के स्‍व में स्‍वाधीनता की यात्रा को देखें तो पाएंगे कि स्वतंत्रता के पश्चात भी सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का प्रभाव बना रहा। पश्चिमी विचारधाराएँ और उपभोक्तावादी जीवनशैली भारतीय मूल्यों को चुनौती देती रहीं। इस समय भी संघ नागपुर की उस परंपरा का संवाहक बना रहा, जो आत्मबल और आत्मगौरव पर आधारित थी। नागपुर के भूगोल की तरह संघ भी भारत के प्रत्येक क्षेत्र को जोड़ने वाला संगठन बना। नागपुर का केंद्रीय स्थान प्रतीक है जोकि संघ का उद्देश्य है कि भारत के उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम सभी को एक सूत्र में बांधा जाए। यह कार्य न किसी नारे से हुआ, न किसी सत्‍ता से; यह हुआ अनुशासन, सेवा और सतत तपस्या से।

नागपुर और नाग-भावना का नवजागरण

अत: यहां यही कहना है कि जब हम नागपुर में आरएसएस की स्थापना को नाग संस्कृति के आलोक में देखते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यह स्थान केवल संगठन का जन्मस्थान नहीं, बल्कि भारतीय अंतस्‍चेतना के पुनर्जन्म का केंद्र है। जैसे नाग अपनी केंचुली त्यागकर पुनर्जीवित होता है, वैसे ही भारत ने भी विदेशी शासन और मानसिक दासता की केंचुली त्यागकर नया जीवन प्राप्त किया और इस प्रक्रिया में संघ वह शक्ति बना जिसने भारतीय समाज को आत्मगौरव, अनुशासन और राष्ट्रभक्ति की भावना से ओतप्रोत किया।

नागपुर की यह परंपरा केवल एक भौगोलिक तथ्य नहीं है, आज के वर्तमान दौर की सांस्कृतिक नियति है। नाग का अर्थ है वह जो रक्षा करे, जो विष सहकर भी जीवन बचाए। संघ की साधना भी यही है; राष्ट्र के लिए तप, त्याग और सेवा। इसीलिए नागपुर में संघ की स्थापना किसी ऐतिहासिक संयोग का परिणाम नहीं, यह तो भारतीय संस्कृति की गहरी प्रवृत्तियों का साकार रूप है। इसलिए ही नागपुर में जन्मा यह संगठन आज भी उसी भावना के साथ कार्य कर रहा है; तन, मन और जीवन राष्ट्र को समर्पित करते हुए जीवन का उत्‍सर्ग करते चलो। भारत मां का परम वैभव पाने को आगे सदा बढ़ते रहो। नाग जैसे मौन, किंतु अडिग प्रहरी की तरह रष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ भी भारत की सांस्कृतिक चेतना का सतत रक्षक बना हुआ है। यही नागपुर की आत्मा है, यही संघ का धर्म, और यही भारतीय सभ्यता के पुनर्जागरण का मूल सूत्र कि जो विष पीकर भी दूसरों की रक्षा करे, वही सच्चा देवता है, वही सच्चा राष्ट्रसेवक यानी कि स्‍वयंसेवक है।