भगवती नवदुर्गा प्राणप्रतिष्ठा शतचंडी महायज्ञ एवं श्री रामकथा
सिवनी, 23 अप्रैल। चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के घर जन्म लेने वाले भगवान श्रीराम ने दुष्ठों के विनाश एवं धर्म की रक्षा के लिये राजपाठ का परित्याग किया और जननायक के रूप में अपना चरित्र स्थापित किया । अच्छे और श्रेष्ठ कार्यो के लिये त्याग और कष्ट भोगने पड़ते है तथा श्रेष्ठ और आज्ञाकारी पुत्र प्राप्ति के लिये भी धर्म,एवं धर्माचार्यो की आज्ञा का पालन करना पड़ता है । इस आशय के उद्गार द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वारूपानंद जी महाराज के कृपापात्र शिष्य पूज्य दंडी स्वामी सदानंद जी महाराज ने सिवनी जिले के परासपानी केवलारी में आयोजित भगवती नवदुर्गा प्राण प्रतिष्ठा शतचंडी महायज्ञ एवं श्रीराम कथा में दूसरे दिन राम जन्म की कथा सुनाते हुए स्वामी जी ने कहा कि, भारतीय शास्त्रीय परंपरा है कि सृष्टि चक्र में जब जब त्रेता युग आते हैं, तब तब चैत्र शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि, दिवस मध्यान्ह काल में सगुण ब्रह्म का अवतरण “श्रीराम के रूप में होता है।
और जब जब युग परिवर्तन क्रम से द्वापर युग आता है तब तब धर्म क्षेत्र में व्याप्त कालीमा को मिटाने के लिए परब्रह्म परमात्मा पूर्ण पुरुष बनकर भाद्र मास की कृष्ण पक्ष को अष्टमी तिथि को अंधकार में मध्य रात्रि में प्रकाशप्रञ्ज बनकर मानवता में स्वप्रकाश प्रकाशित करता है।
अर्थात एक ही तत्व त्रेता में सूर्यवंशी द्वापर में चंद्रवंशी हो रहा है दोनों तेज स्वरूप है।
चक्रवर्ती राजा दशरथ जो अयोध्या नगरी में शासन करते थे उनके साम्राज्य में सब कुछ था परंतु संतान नहीं थी, पुत्र प्राप्ति के लिए गुरु की आज्ञा से दशरथ महराज ने यज्ञ किया,यज्ञ नारायण भगवान ने महराज दशरथ को देवताओं के द्वारा निर्मित खीर प्रदान की राजा दशरथ ने रानियों को यथा योग्य खीर वितरित कर दी जब छ:ऋतुये बीत गई, तब बारहवे मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में को देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त सर्वलोक वन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया।
उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) ये पांच ग्रह अपने – अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। वे विष्णु स्वरूप खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। कौशल्या के पुत्र श्रीराम इक्ष्वाकु कुल का आनंद बढ़ाने वाले थे। उनके नेत्रों में कुछ _कुछ लालिमा थीं। उनके होठ लाल, भुजाए बड़ी-बड़ी और स्वर दुंदुभी के समान गंभीर था। उस अमित तेजस्वी पुत्र से महारानी कौसल्या की बड़ी शोभा हुई। उसी तरह जैसे इंद्र से देवमाता अदिति सुशोभित हुई थी।
श्रीरामचरित मानस में गोस्वामी जी लिखते है कि-
नवमी तिथि मधुमास पुनीता। सुकुल पच्छ अभिजित हरिप्रिता।
मध्य दिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक विश्राम।।
सुर समूह विनती करि,
पहुंचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे,
अखिल लोक विश्राम।।
जब श्रीरामचंद्रजी के जन्म का अवसर उपस्थित हुआ तो ऋतुराज वसंत में उनका जन्म हुआ। एक राजकुमार के रूप में जन्म लेने के कारण ऋतुओं के राजा वसंत ऋतु में उनका जन्म होना ही चाहिए इसी तरह बसंत ऋतु के चैत्र मास में जन्म लेने का क्या अर्थ है जो चित्र – विचित्र अनिर्वचनीय गुणों से संपन्न हो और जिसकी पुर्णिमा को चित्रा नक्षत्र हो उसको चैत्र कहते है। इसलिए ऐसे दिव्य मास में श्रीरामचंद्र का जन्म हुआ। चैत्र में भी शुक्ल पक्ष हैं, जिसका अर्थ है शुद्धपक्ष।।
हिन्दुस्थान संवाद
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