भगवान की कथा जहाँ होती है, वहाँ अमृत बरसता है। ऐसा ही अमृत गुरूधाम में बरस रहा है-द्विपीठाधीश्वर
सिवनी, 21 फरवरी। राजा को धर्म निष्ठ होना चाहिए। प्रजा उस राजा की प्रशंसा करती है जो धर्मनिष्ठ होता है और जो राजा धर्मनिष्ठ नहीं होता, उसे प्रजा समय के साथ भूल जाती है। श्रीमद् भागवत कथा में अमृत होता है। मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार कर्म करना चाहिए। गुरू का स्थान श्रेष्ठ होता है, लेकिन आज कल गुरू खड़े होकर पढ़ाता है और शिष्य बैठकर पढ़ते हैं।
द्विपीठाधीश्वर ने आज श्रीमद् भागवत ज्ञान यज्ञ सप्ताह के तीसरे दिन राजा परीक्षित के उस कथा का श्रवण जन मानस को कराया, जब उन्हें मृत्यु का श्राप मिल गया। मृत्यु के श्राप मिलते ही उन्होंने साधु-संतों से इसके निराकरण का प्रश्न पूछा तो उन्होंने श्रीमद् भागवत कथा सुनने की बात कही। राजा की मृत्यु का समाचार पाकर साधु-संत और प्रजा दुखी हो गयी क्योंकि उनके राज में शेर और गाय एक घाट पर पानी पीते थे। महाराजश्री ने कहा कि आश्चर्य क्या है! आशा प्रबल होती है वह संसार से जाना नहीं चाहता। उसे संसार से जाने पर कष्ट होता है, यह मृत्यु ही है। जो राजा धर्मनिष्ठ होता है प्रजा उसकी प्रशंसा करती है। राजा परीक्षित ऐसे ही धर्मनिष्ठ राजा थे। महाराजश्री ने कहा कि अमृत कहाँ है, किसी ने कहा अमृत सागर से निकला है तो उसमें अमृत है। स्वर्ग में देवताओं की मृत्यु नहीं होती तो अमृत वहाँ है। स्वर्ग लोक में अमृत है। आपने बताया कि सागर में अमृत होता तो उसका पानी खारा कैसे होता, स्वर्ग में अमृत होता तो उनका पुण्य क्षय होने पर वे पराजित कैसे होते। आपने कहा कि अमृत श्रीमद् भागवत कथा में ही है। भगवान की कथा जहाँ होती है, वहाँ अमृत बरसता है। ऐसा ही अमृत गुरूधाम में बरस रहा है।
द्विपीठाधीश्वर ने कहा कि मनुष्य को वर्ण के हिसाब से कार्य करना चाहिए। मनुष्य वर्ण के आधार पर ही पहचाना जाता है। ब्राह्मण श्रेष्ठता और ज्ञान से, क्षत्रिय बल से, वैश्य धन से और शूद्र आयु से पहचाना जाता है। आपने कहा कि ईश्वर निर्गुण और शगुण रूप में है। ईश्वर का एक निर्गुण रूप है और पाँच शगुण रूप। शगुण रूप में शिव-शक्ति, भक्ति, गणेश और विष्णु हैं। आज शिक्षा गलत तरीके से प्रदान की जा रही है। गुरू खड़ा रहता है और शिष्य बैठता है। जबकि सनातन काल में गुरू आसन में होता था और शिष्य नीचे जमीन में बैठकर अध्यापन कार्य करते थे। महाराजश्री ने एक किसान की कथा सुनाते हुये बताया कि दूध में घी कहाँ है। ऐसे ही ईश्वर जर्रे-जर्रे में निवास करता है। ईश्वर का भोजन अहंकार होता है वे अहंकार को खाते हैं। आज बिना ज्ञानी और योग्यता में पारंगत न होने वाला व्यक्ति भी अपने आप को जुगाड़ लगाकर शंकराचार्य कहलाने लगता है। आपने बताया कि जिस महापुरूष का अभिषेक विद्वानों के द्वारा किया जाता है वे भगवान स्वरूप हो जाते हैं।
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने श्वास के संबंध में बताया कि यह वेश-कीमती है। एक बार एक किसान जो अपने गुलेल में पत्थरों को रखकर फेंकता था, जब उसके पास पत्थर खत्म हो गये तो उसे एक घड़ा मिला, जिसमें वेश-कीमती पत्थर थे, लेकिन उसे उसकी कीमत नहीं पता थी। पत्थर के खत्म हो जाने पर वह किसान इन्हीं रत्नों को गुलेल में बाँधकर फेंकता रहा और वे पानी में डूबते रहे। एक दिन जब घर से कुछ सामान लेने की बात कही गई तो उसने बचे हुए एक पत्थर को बेचना चाहा तो उसकी कीमत सुनकर उसके पैरों की जमीन खिसक गई क्योंकि वह वेश-कीमती पत्थर की कीमत इतनी अधिक थी कि वह सुनकर ही हक्का-बक्का हो गया। यह वेश-कीमती पत्थर हमारी श्वास ही है। जब तक हमारी श्वास है, तब तक इसकी कीमत है। महाराजश्री ने बताया कि एक दिन में मनुष्य 21600 बार श्वास लेता है।
महाराजश्री ने समय की कीमत का उल्लेख करते हुए कहा कि समय की कीमत उसे ही पता चलती है जब रेल चालू होकर चलने लगती है और वह उसमें बैठ नहीं पाता और अंतत: कुछ समय देरी से आने के कारण रेल चली जाती है। महाराजश्री ने पुर्नजन्म का उल्लेख करते हुए बताया है कि एक महात्मा बद्रीनाथ की यात्रा में निकले थे और रास्ते में उन्होंने धन को एक पत्थर के नीचे दबा दिया। रास्ते में उनकी मृत्यु हो गई और जहाँ धन रखा था जब लौट के आये महात्मा ने उस स्थान में रखे पत्थर को हटाया तो वहाँ साँप फन निकाले बैठा था। महात्मा समझ गये कि ये वही महात्मा है जिनकी मृत्यु रास्ते में हो गई है। संतों ने उस धन को लेकर भण्डारा कराया और भण्डारा होते ही सर्प ने अपने देह को त्याग मोक्ष प्राप्त किया।
महाराजश्री ने विश्व हिन्दू परिषद के ऊपर आरोप लगाया है कि यह संस्था पुरानी स्मृतियों को समाप्त करने में लगी हुई है और नई स्मृतियों को बनाने का प्रयास कर रही है। आपने भोजन का प्रभाव बताते हुए कहा कि मनुष्य जैसा अन्न ग्रहण करता है, उसके कर्म भी वैसे ही हो जाते हैं।
हिन्दुस्थान संवाद
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